इन्तजार


 


अन्तःकरण का जार -जार होना ही इन्तजार का मर्म है। चाहे इन्तजार करना हो या कराना दोनों ही संवेदनशीलता की उच्चतम शिखर को स्पर्श करता एक अनुभव है। कभी जानबूझकर तो कभी अनजाने मे कभी न कभी तो इससे वास्ता हर किसी को पड़ा ही होगा । 

इस इन्तजार के क्षण का जीवन यात्रा भी बड़ी अजीब होती है। कभी -कभी इस समयावधि मे किसी ऐसे शख्स से मुलाकात हो  जाती है। जिससे जीवन की दिशा और दशा दोनों बदल जाती है।हमारे सामने वाला हमारे अंदर छिपी प्रतिभा को पहचानकर जिससे हम खुद अनजान होते है उससे परिचय करा जाता है। और हमे एक मुकाम तक पहुँचने की राह मिल जाती है। तो कभी कड़वे अनुभव से भी दो चार होना पड़ जाता है। 

जब हम किसी का इन्तजार कर रहे होते हैं। चाहे वह व्यक्ति हो, समय हो,गंतव्य का संसाधन हो,किसी के आने का, जाने का,खाने का या कामयाबी के रिजल्ट का ही क्यों न हो इन सारे स्थितियों मे जो एक सामान्य बात है वो यह की उस वक्त हमारी सोच का ऊर्जा (सकारात्मक नकारात्मक )हमारे अंदर बाहर तरंगित होती रहती है। जो परिस्थितियों को अपने अनुकूल परिवर्तित करने लग जाती है। ऐसे हालत मे बेहतर यही होता है की जो हमारे वश मे नही है उसके वारे मे नकारात्मक सोचने के बजाय जो हम कर सकते हैं उसके बारे मे सोचने से कोई न कोई समाधान परक राहें मिल ही जाती है। इन्तजार की घड़ियाँ खत्म होते ही हम नई ऊर्जा के साथ उस पल का स्वागत कर रहे होते हैं।

इसका दूसरा पहलू भी है जब हमारा कोई इन्तजार कर रहा होता है। उस वक्त हमारे अंदर भी भावनाओं का समंदर अटखेलियाँ कर रही होती है। उस वक्त भी हम अगर दोषी या अफसोस करने के बजाय इन्तजार के लम्हे को कम करने के बारे मे सोचते हुए जिस काम का इन्तजार हो रहा होता है उसे बेहतर बनाने के बारे मे बिचार करते चलें । तो यकीनन इन्तजार का फल मीठा होता है का रसास्वादन कराने मे कामयाब हो सकते हैं। वरना एक लापरवाह की उपाधि व वददुआओं की सौगात मिलते देर नही लगती। 

अब यह एक विचारणीय तथ्य है की हमें क्या चाहिए,हम क्या कर सकते हैं, इस पल को और बेहतर कैसे बनाया जाय ?


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