पंचकर्म चिकित्सा

 



आयुर्वेद मे सम्पूर्ण शरीर को शुद्धिकरण करने का विशेष प्रक्रिया है पंचकर्म चिकित्सा। दूसरे शब्दों मे इसे संशोधन चिकित्सा भी कहते हैं। महर्षि चरक और वाग्भट्ट के मतों मे थोड़ी सी मतान्तर देखने  को मिलती है। महर्षि चरक के मतानुसार पंचकर्म के अंतर्गत वमन, विरेचन, आस्थापन, अनुवासन और शिरोविरेचन को स्थान दिया गया है। जबकि महर्षि वाग्भट्ट के मतानुसार पंचकर्म मे  वमन, विरेचन, नस्य,वस्ति और रक्तमोक्षण का उल्लेख मिलता है। 

वमन और विरेचन को दोनों ने ही प्रधानता दी है। 

  • वमन -वमन का प्रयोग आमाशय मे संचित कफ दोषों को दूर करने के लिए किया जाता है। इसका मुख्य द्रव्य होता है मधु। 
  • विरेचन - आमाशय और पक्वाशय  मे संचित पित दोषों को दूर करने के लिए विरेचन का प्रयोग किया जाता है। इसका मुख्य द्रव्य घी होता है। 
  • वस्ति -- शब्दांतरण से वस्ति के अंतर्गत ही इन्हे दो उपवर्ग आस्थापन वस्ति और अनुवासन वस्ति का प्रयोग पक्वाशय मे संचित वातदोष  को दूर करने के लिए किया जाता है। इसका मुख्य द्रव्य तैल होता है और रोगनुसार अन्य औषधियों का सहयोग लिया जाता है। 
  • नस्य -- अब नस्य और शिरोविरेचन तो जहाँ नस्य का प्रयोग गर्दन से ऊपर (नाक, कान, आँख, सिर, गला )के दोषों को दूर करने के लिए प्रयोग किया जाता है वहीं शिरोविरेचन का प्रयोग विशेष रूप से सिर प्रदेश के दोषों को दूर करने के लिए किया जाता है। इसका भी मुख्य द्रव्य तैल ही होता है। 
  • रक्त मोक्षण - शरीर के किसी भी भाग से दूषित रक्त को निकालने की एक प्रक्रिया के रूप मे इसका प्रयोग किया जाता है। इसमे शल्य चिकित्सा या शृंगी (जोंक )का प्रयोग किया जाता है । 
इस तरह व्यक्ति विशेष, व्याधि (रोग )विशेष, मौसम विशेष के अनुरूप जब जिस दोष का प्रकोप बढ़ जाता है यथा स्थान उन दोषों को शांत करने के लिए इन पंचक्रमों का प्रयोग करके स्वास्थ्य लाभ लिया जाता है। 

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