जीवन का संघर्षकाल और भाषा की चुनौतियाँ
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ऐसा हम सभी जानते हैं। जितना सच मनुष्य का
सामाजिक होना है उतना ही सच सामाजिक होने में भाषा का महत्वपूर्ण योगदान का भी है।
अपने मनोभावों के अभिव्यक्ति के कई तरीके हैं जैसे --स्पर्श ,बोल -चाल की भाषा ,गीत -संगीत ,नृत्य ,चित्रकला ,संकेत
इत्यादि। इन सब में भाषा का माध्यम सबसे सरल और प्रभावी भी है। पर जब एक नवजात
शिशु जो अभी बोलना भी नहीं सीखा है वह भी स्पर्श की भाषा को बड़ी ही सहजता से समझ
भी लेता है और प्रतिक्रिया भी करता है। यहीं से व्यवहारिक संवाद का आरम्भ होता है
जो धीरे- धीरे भाषा में परिवर्तित होकर संचार का माध्यम बनता है।
कई शोध अध्ययनों का
निष्कर्ष यह है की प्रारम्भ के 5 -6 वर्षों में मस्तिष्क
का विकास बड़ी शीघ्रता से होती है जो ग्रहणशीलता को आत्मसात करने में सहायक सिद्ध
होता है। इसी को ध्यान में रखते हुए नई शिक्षा नीति 2020 में
प्रारम्भिक शिक्षा को क्षेत्रीय भाषाओँ में सिखने पर जोर दिया गया है साथ ही
सर्वमान्य व् रोजगार परक भाषा अंग्रेजी और हिंदी को भी लचीला रवैया अपनाते हुए
सिखने का विकल्प भी रखा गया है। इस उम्र में प्रयास करके एक साथ एक से अधिक भाषाओं
का ज्ञान सरलता से सीखा और सिखाया जा सकता है।
व्यवहारिक अनुवाद की
समस्या सिर्फ आज की नहीं है बल्कि इसका सामना हमारे वैदिक विद्वानों को भी करना
पड़ा होगा ऐसा लगता है।कहा जाता है की आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है तभी तो
दैनिक व्यवहार में प्रयोग किये जाने वाले फल -फूल तथा औषधीय प्रयोग में भी
प्रयुक्त होने वाले असंख्य पेड़ -पौधों का विस्तृत वर्णन निधण्टु रत्नाकर नामक पुस्तक
में मिलती है। जिसमे प्रत्येक द्रव्य का नाम मुख्यतः 10 भाषाओँ में वर्णित मिलता है। हलाकि उन सबका वर्णन हिंदी और संस्कृत में
ही है। परन्तु नाम का कई भाषाओ में वर्णन होना इस बात का संकेत लगता है की वहॉँ भी
भाषा की समस्या से दो चार होना पड़ा होगा। इसलिए समस्त पाठक सुधिगण को ध्यान में
रखकर औषध द्रव्यों का कई भाषाओँ में सबके नाम का वर्णन किया गया है।
भारत में तो सदा से सामासिक संस्कृति रही है। कई देशों ने आक्रांता के रूप में आए और यहीं के होकर रह गए। जब कई अलग -अलग मुल्कों के लोग यहां आये और आकर बस गए तो उनकी संस्कृतियों का भी आदान -प्रदान निश्चित रूप से हुआ ही होगा। कुछ मन से कुछ अधमने मन से जरूरत के अनुसार कामचलाऊ भाषाओं को तो सीखा ही होगा। यही कारण है की भारत अनेकताओं में एकता का देश बन गया। विकास और परिवर्तन की सतत प्रक्रिया मानव जीवन का अभिन्न अंग है। हमारा भारत रंग -विरंगे फूलों से सजे गुलदस्ते की तरह है। जहाँ कई क्षेत्रीय बोली और भाषाएँ अपनी मिठास से सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में बांधती है। तभी तो भारतीय संविधान में भी 22 भारतीय भाषाओं को प्रमुखता से स्थान दिया गया है। सभी की अपनी -अपनी विशेषता और प्रयोग है।
भाषा थोड़ी समस्या तब बन जाती है जब हम पढ़ाई या जीवकोपार्जन के लिए एक दूसरे राज्यों या देशों में जाकर रहने लगते हैं। विशेषकर दैनिक कार्यों में जैसे -बैंक ,बाजार ,क्षेत्रीय लोगों से मिलना- जुलना जैसे कार्यों में क्षेत्रीय भाषा की अज्ञानता एक बड़ी चुनौती के रूप में आ खड़ी होती है। कई बार तो ये बहुत बड़ी समस्या का रूप अख्तियार कर लेता है। भाषा को आधार बनाकर किसी वर्ग विशेष से पक्षपात करना ,प्रताड़ित करना जैसी घटनाएं आये दिन देखने सुनने को मिल जाते हैं।इस समस्या से कई बड़े -बड़े हस्तियों को भी रु -व् रु होना पड़ा है। तभी तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल विहारी वाजपेयी जी को भी एक सफल नेतृत्व के लिए कई भाषाओँ को सीखना पड़ा था। उन्हें लगभग 14 भाषाओं का अच्छी तरह से ज्ञान था। डॉ. कलाम को भी एक से अधिक भाषाओं का ज्ञान था। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी भी कई भाषाओं को समझते और कभी -कभी बोल भी लेते हैं। एक सफल नेतृत्व ही नहीं बल्कि जीवन में सफल होने के लिए भी यह जरूरी हो जाता है की वैश्वीकरण के इस दौर में सिर्फ भारत भर में ही नहीं बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी भाषाओं का आदान -प्रदान हमारी कार्यशैली को और भी बेहतर बनाने में सहयोग करता है। अब तो फॉरेन लैंग्वेज जैसे विषय भी हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा है।
हालाकि बदलते परिवेश में तकनीकी विकास ने हमारे जीवन को बड़ी ही सहज और सरल बना दिया है। डिजिटल इंडिया के आह्वान से कई ऐसे -ऐसे ऐप विकसित किये गए हैं जो बड़ी ही शीघ्रता से हमारी जरूरत के भाषा में अनुवाद कर लेता है। विशेषकर जब लॉकडाउन हुआ तो कमोवेश सभी उद्योग -धंधे प्रभावित हुए परन्तु जो सबसे अधिक प्रभावित हुआ वो है शिक्षा का क्षेत्र अचानक से सम्पूर्ण भारत को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर काम करना सीखना और सीखाना दोनों ही चुनौतीपूर्ण कार्य था। जिसमें गूगल ट्रांसलेट की बहुत बड़ी भूमिका रही। अब तो इसका प्रयोग कई पर्यटन स्थल पर भी गाइड के रूप में किया जाने लगा है।
आज हम अपने बच्चों को वचपन से ही कोडिंग सीखाने का प्रयास करने लगे हैं।कोडिंग डिजिटल प्लेटफॉर्म का एक अभिन्न अंग है। बल्कि यों कह लें की रोज नित्य नए जरूरतों को पूरा करने हेतु नए -नए ऐप का ईजाद किया जा रहा है। जो दैनिक कार्यों से लेकर व्यवसायिक और शैक्षिक जैसे कई कामों को आसान बना दे रहा है। इन सबके सफल और सुचारु क्रियान्वयन हेतु कोडिंग बुनयादी आवश्यकता है।
बात व्यवहारिक अनुवाद की चुनौतियों की हो और लुई ब्रेल की चर्चा न हो तो ये संवाद अधूरी सी लगती है। एक तीन साल का बच्चा अपने पिता के साथ काम करने के दौरान दुर्घटना ग्रस्त हो जाता है और अज्ञानता वश लापरवाही के कारण संक्रमित होकर धीरे -धीरे आठ वर्ष की अवस्था आते -आते पूरी तरह दृष्टिहीन हो जाता है। इसके बारे में ही सोचकर रूह काप जाती है। पर वह साहसी बच्चा हार नहीं मानता बल्कि अपनी विवेक और एक सैन्य अधिकारी के सहयोगात्मक व्यवहार से जिन्होंने उस समय अँधेरे में भी पढ़ी जाने वाली नाइट राइटिंग से अवगत कराया। जो कागज पर उभरी हुई 12 विन्दुओं पर आधारित था। उसी कला को आधार बनाकर 12 विन्दुओं में संशोधन कर 6 विन्दुओं पर आधारित वर्णमाला सहित कुछ चिन्हों का इजाद किया। जिससे सिर्फ अपने ही जीवन नहीं बल्कि अपने जैसे अन्य दृष्टिहीन व्यक्तियों के सहयोगार्थ जो कुछ पढ़ना -लिखना चाहता है पर ऐसा कर नहीं पाता है को एक रौशनी की किरण के रूप में ब्रेल लिपि नामक अध्ययन सामग्री का अविष्कार किया। वह बालक कोई और नहीं लुई ब्रेल जी ही हैं। उनका जन्म 4 जनवरी 1809 ई ० में हुआ था उन्होंने 16 वर्ष की अल्पायु में ही (1824 )इस अद्भूत विद्या का प्रस्तुतिकरण दिया था। जिसे पहली वार 1829 ई ० में ब्रेल लिपि प्रणाली के रूप में प्रकाशित की गई थी। बदकिस्मती से उनके जीते जी इतने महान कार्य को उतनी महत्ता नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए थी। उनकी मृत्यु 6 जनवरी 1852 ई ० में महज 43 वर्ष की अल्पायु में ही हो गई।
इतने महत्वूर्ण और महान कार्य को प्रमाणिक रूप से मान्यता मिलने में मृत्यु के बाद भी 16 वर्ष लग गये। 1868 ई ० में जाकर इसे प्रमाणिक मान्यता मिली। इसके बाद भी इस लिपि और इसके आविष्कारकर्ता को वो सम्मान नहीं मिल सका जिसके वो हकदार थे। भारत सरकार ने पहली वार उनके जन्मदिवस के 200 वें वर्षगाठ (4 जनवरी 2009 )पर एक डाकटिकट उनके नाम का जारी कर सम्मानित करने का प्रयास किया। उसके बाद विश्व सम्मान का संघर्ष जारी रहा। तब जाकर संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA )द्वारा 2019 में अनुमोदित किया गया की उनका जन्म दिवस को ब्रेल दिवस के रूप में मनाया जायेगा। उसी वर्ष( 4 जनवरी 2019 ) को पहली ब्रेल दिवस मनाकर उन्हें पूर्ण सम्मानित किया गया।
यहाँ कहने का तात्पर्य यह है की सामान्य लोगों की भाषा समस्या की ओर ध्यानाकर्षण के साथ ही साथ विशेष रूप से जन्मजात या दुर्घटनाग्रस्त हुए अपंग लोगों के समस्याओं को भी नोटिस किये जाने की जरूरत है। जैसे मूक -बधिरों के लिए सांकेतिक भाषा ,दृष्टिहीन के लिए ब्रेल लिपि ,मंदवुद्धि बालकों के लिए सहयोगी उपकरणों का नए -नए आविष्कारों का सदुपयोग करके भाषा संबंधी चुनौतियों को बहुत हद तक कम किया जा सकता है। इस प्रकार इन चुनौतियों को अवसर में भी बदला जा सकता है।
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