पाणिग्रहण
हिंदु रीति -रिवाज से होने वाले शादी समारोह का एक विशेष महत्वपूर्ण रिवाज (परम्परा )है पाणिग्रहण। जिसमे कन्या के पिता अपनी कन्या का हाथ इस भरोसे के साथ कि अपने दिल के टुकड़े जिसे बड़े ही लाड़ -प्यार से पाला है। उसकी आवश्यक मांगों को माना भी है और बचकाना हरकतों से रोका भी है। कुल मिलाकर संतुलित परवरिश दी है। आज से आगे इसकी सम्पूर्ण जिम्मेवारी आप कुशलता पूर्वक निभाओगे पुरे विश्वास के साथ दोनों परिवार और समाज को साक्षी मानकर वर के हाथों में विधि -विधान के साथ सौंपता है और उपहार स्वरूप कुछ सामान ,रूपये -पैसे ,आशीर्वाद के रूप में देने की पौराणिक प्रथा रही है। जिसपर सिर्फ और सिर्फ कन्या का अधिकार होता है। ये कानून सम्मत भी है।
अभी -अभी नई नवेली दुल्हन बनी अर्पिता अपने ससुराल में अपनी ननद की शादी में आनंद और उत्साह से सरावोर हो रही थी घर के आँगन बारात जो आई थी। चारो तरफ शहनाइयों की गूंज ,लोगों का आना जाना सब एकदम से खुशनुमा माहौल बना रहा था। इसी बीच थकान के मारे थोड़ी सुस्ताने के ख्याल से अपने कमरे के विस्तर पर जैसे ही बैठी आँखें लग गई। आचानक घर के आँगन में परिवार के सदस्यों द्वारा हुए कोलाहल से जब आँखें खुली तो कुछ समझने -बुझने के ख्याल से दबी पाँव आँगन में उत्तर आईऔर उस कोलाहल का हिस्सा बन गई। क्योकि वो मानने लगी थी की अब मै भी इस परिवार का हिस्सा जो हूँ। जैसे ही माजरा समझ आई की लड़के वालों ने पाणिग्रहण का पैसा रख लिया है जो की अभी भी अधिकांश परिवारों का परम्परा रहा है। हर कोई अपना -अपना मंतव्य खुले विचारों के साथ बड़ी ही सहजता और दृढ़ता से रख रहा था। कोई इस परम्परा को गलत ठहरा रहा था तो कोई लड़के के पिताजी को तो कोई लड़के को ही। इसी बीच बिना कुछ सोचे समझे वेवाकी से अर्पिता भी अपना विचार रखते अपने पिता तुल्य ससुर को बोली हाँ बाबुजी अगर ऐसा ही करना था तो मंडप पर दूल्हे के साथ दुल्हन की जगह दूल्हे के बाबूजी को ही बिठा देना चाहिए था। इतना सुनते ही दोनों के चेहरे विस्मयादि बोधक भावों के साथ शुन्य में चली गई बिना कुछ कहे सब कुछ जो कह डाली थी अर्पिता ने। यही तो उसकी भी शादी में हुई थी फर्क सिर्फ इतना था की उसके तरफ से इस मुद्दे पर कोई आवाज उठाने वाला जो नहीं था। आज भी हमारे समाज में कमोवेश यही दोहरी मानसिकता जगह बनाये हुये है।
सभ्यता के आरम्भ से ही बेटियों को उपहार स्वरूप कुछ भेंट देने की परम्परा रही है। वही परम्परा समय के साथ परिवर्तित होते होते कब दहेज का रूप ले लिया और स्वेच्छा से दी गई दान का आज विकृत और विकराल रूप दहेज रूपी दानव समाज का अबुझ पहेली बनकर रह गया है।

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