परम्परा फैशन की
जब नई पीढ़ी नये आयाम ढूंढती है तो परम्परा की श्रृंखला टूटती है और परिवर्तन का दौर शुरू होता है। फैशन और परिवर्तन एक दूसरे के पूरक है। फैशन समाज को प्रतिविम्वित करने वाला दर्पण है यह समाज के सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को दर्शाता है। इसे अपनाने के लिए व्यक्ति को स्वतंत्रता ,धन , समय ,शिक्षा और परिधान संबंधी आविष्कारों की जानकारी आवश्यक हो जाता है।
फैशन की स्वीकृति को 5 चरणों में विभाजित करते हुए एक चक्र इस प्रकार निर्मित होता है।
- F1 परिचय
- F2 लोकप्रियता में बढ़ोतरी
- F3 लोकप्रियता का चर्मोतकर्ष
- F4 लोकप्रियता में कमी
- F5 बहिष्करण /अस्वीकार
उच्च वर्ग के लोगो के पास पैसे होते है इसलिए वे उत्तम श्रेणी के वस्त्र सरलता से खरीद लेते है जिनकी गुणवत्ता जांचने हेतु महानगरों में दुकान, मॉल या शोरूम के बगल में ही प्रयोगशलाओं की सुविधा होती है।
निम्न वर्ग के लोगो की आमदनी सिमित होती है अतः ये लोग मानसिक रूप से तैयार होते है गुणवत्ता (quality)से समझौते के लिए। इसमें भी निर्माताओं को विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ती है।
सबसे अधिक परेशानी मध्यम वर्ग के लोगों में होती है इस वर्ग के जरूरतों को पूरा करने के लिए निर्माता और उपभोगता दोनों को अधिक मेहनत करनी पड़ती है जो बाजार का सबसे बड़ा वर्ग होता है।
वस्त्र उद्योग के क्षेत्र में हुए विकास के परिणाम स्वरूप कई प्राकृतिक ,कृत्रिम ,विशिष्ट रेशे का ईजाद हुआ इसमें जो सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल की वो है रेयान और नायलॉन जो किसी न किसी रूप में सभी वर्गो को अपनी और आकर्षित किया है।नायलन अपनी मजबूती, टिकाऊपन, चमक, सिलवट प्रतिरोधी ,तथा पहनने और देखभाल करने में आसान जैसी खूबियों से युक्त होने के कारण जादुई प्रभाव छोड़ती है। इसलिए इसे जादुई रेशे भी (MAGIC FIBER)कही जाती है।इन्हीं गुणों के कारण कई अन्य रेशों में (कपास ,रेशम,उन ,लिनन ,व् अन्य कृत्रिम )इसे मिलाकर वस्त्र वनाये जाते है। जो वस्त्र के गुणवत्ता ,उपयोगिता,तथा कीमत को मध्यम वर्ग के अनुरूप बनाती है कुछ मिश्रित रेशे निम्न प्रकार के हैं
टेरीकॉट ----टेरिलीन +सूती
टेरीवुल -----टेरीलीन +ऊनी
टेरिसिल्क -----टेरिलीन +रेशमी (सेमी सिल्क )
कॉट्सवूल -----सूती +ऊनि
वस्त्र तंतु उत्पाद पहचान अधिनियम (3 /3 /1960 )के नियमानुसार अधिकांश वस्त्रो के लेवलों पर 5 %से अधिक मात्रा वाले वस्तुओ का नाम प्रकार व् मात्रा का सांकेतिक भाषा में उल्लेख किया रहता है वस जरूरत होती है ध्यान देकर पहचानने की। कुछ वस्त्रो पर उसके ताने वाने की संख्या के आंध्र पर कोडिगं किया रहता है जो उसके मजबूती के आधार स्तम्भ होता है। जैसे ---100 /80 , 180 ,100 x 80 इनमे ताने के अंक पहले होते है और वाने के अंक बाद में इनमे 74 x 70 सबसे अच्छे संतुलन को दर्शाते है वहीं 28 x 24 निम्न कोटि के होतेहै।
वर्तमान समय में इको फ्रेंडली ,इंडो -वेस्टर्न ,समर कलेक्शन ,विंटर कलेक्शन ,वेडिंग कलेक्शन ,ऑफिस वियर स्पोर्ट वियर और डेली यूज जैसे शब्दों ने चयन प्रक्रिया को थोड़ी सरल बना दी है विशेषकर तो युवा वर्ग तो कुछ विशेष ही ड्रेस कॉन्सेस होते है। वे लेटेस्ट फैशन का अनुसरण करते है यहां यह बताते चले की फैशन परिवर्तनशील होते है। अतः समझदारी इसी में है की कुछ ही वस्त्र फैशन के अनुरूप खरीदे जाए और अधिकांश वस्त्र अपनी जरूरतों कोध्यान में रखकर ही खरीदने चाहिए। जैसे :--
आयु ---नवजात शिशु के लिए कोमल सूती तथा आरामदायक वस्त्र,किशोरों (युवाओ )के कपड़े गहरे रंग ,चमकदार तथा स्टाइलिश होने चाहिए। वहीं बुजुर्गों के कपड़े छोटे प्रिंट के तथा हल्के रंग के होने चाहिए।
खेल -कूद --इसके लिए कपड़े में मजबूती ,नरम ,मुलायम, छिद्रयुक्त वस्त्रो का चयन करना चाहिए। इसके लिए निटेड वस्त्र उत्तम होते है।
विशेष अवसर --शादी समारोह ,पार्टी, पर्व त्यौहार के लिए वस्त्रथोड़ा चटकीले ,कढ़ाईदार ,पारम्परिक +आधुनिकता के पूत अच्छे लगते हैं। जैसे -पारम्परिक साडी ,लहंगा चुन्नी ,कढ़ाईदार कुर्ते के साथ जींस,लॉन्ग स्कर्ट ,सलवार कमीज ,पठानी सूट ,शेरवानी आदी।
और अंत में यही कहना चाहूंगी की जहां एकओर भरतीय परिधान में उसकी खूवसूरती एवं आकर्षण लटकनशैली आधारित होती है वहीं पश्चिमी परिधान प्रायः शरीराकारीक होते है। जो आज के विकसित और परिवर्तित जरूरतों के लिए ज्यादा अनुकूल होते है इसमें उठना -बैठना ,भागना -दौ डना ,सीढ़ियां या वाहन पर चढ़ना -उतरना आदि शारीरिक गतिविधियां सरलता से सम्पन्न हो जाती है।तथाइसकी देख -रेख ,रख -रखाव भी तुलनात्मक रूप से आसान होती है। साथ ही भारत की विविधता को हम विशेष अवसरों पर क्षेत्रीय पारम्परिक वस्त्रो के साथ आभूषणों को पारम्परिक तरिके से प्रयोग कर अपनी संस्कृति को भी खुबसूरती से संजोया जा सकता है। वस्त्र और परिधान धारण करने के मूल उदेश्य तब भी दो ही थे और आज भी शरीर को ढककर सुरक्षित रखना और उनमें आकर्षण पैदा करना।
टेरीकॉट ----टेरिलीन +सूती
टेरीवुल -----टेरीलीन +ऊनी
टेरिसिल्क -----टेरिलीन +रेशमी (सेमी सिल्क )
कॉट्सवूल -----सूती +ऊनि
वस्त्र तंतु उत्पाद पहचान अधिनियम (3 /3 /1960 )के नियमानुसार अधिकांश वस्त्रो के लेवलों पर 5 %से अधिक मात्रा वाले वस्तुओ का नाम प्रकार व् मात्रा का सांकेतिक भाषा में उल्लेख किया रहता है वस जरूरत होती है ध्यान देकर पहचानने की। कुछ वस्त्रो पर उसके ताने वाने की संख्या के आंध्र पर कोडिगं किया रहता है जो उसके मजबूती के आधार स्तम्भ होता है। जैसे ---100 /80 , 180 ,100 x 80 इनमे ताने के अंक पहले होते है और वाने के अंक बाद में इनमे 74 x 70 सबसे अच्छे संतुलन को दर्शाते है वहीं 28 x 24 निम्न कोटि के होतेहै।
वर्तमान समय में इको फ्रेंडली ,इंडो -वेस्टर्न ,समर कलेक्शन ,विंटर कलेक्शन ,वेडिंग कलेक्शन ,ऑफिस वियर स्पोर्ट वियर और डेली यूज जैसे शब्दों ने चयन प्रक्रिया को थोड़ी सरल बना दी है विशेषकर तो युवा वर्ग तो कुछ विशेष ही ड्रेस कॉन्सेस होते है। वे लेटेस्ट फैशन का अनुसरण करते है यहां यह बताते चले की फैशन परिवर्तनशील होते है। अतः समझदारी इसी में है की कुछ ही वस्त्र फैशन के अनुरूप खरीदे जाए और अधिकांश वस्त्र अपनी जरूरतों कोध्यान में रखकर ही खरीदने चाहिए। जैसे :--
आयु ---नवजात शिशु के लिए कोमल सूती तथा आरामदायक वस्त्र,किशोरों (युवाओ )के कपड़े गहरे रंग ,चमकदार तथा स्टाइलिश होने चाहिए। वहीं बुजुर्गों के कपड़े छोटे प्रिंट के तथा हल्के रंग के होने चाहिए।
खेल -कूद --इसके लिए कपड़े में मजबूती ,नरम ,मुलायम, छिद्रयुक्त वस्त्रो का चयन करना चाहिए। इसके लिए निटेड वस्त्र उत्तम होते है।
विशेष अवसर --शादी समारोह ,पार्टी, पर्व त्यौहार के लिए वस्त्रथोड़ा चटकीले ,कढ़ाईदार ,पारम्परिक +आधुनिकता के पूत अच्छे लगते हैं। जैसे -पारम्परिक साडी ,लहंगा चुन्नी ,कढ़ाईदार कुर्ते के साथ जींस,लॉन्ग स्कर्ट ,सलवार कमीज ,पठानी सूट ,शेरवानी आदी।
और अंत में यही कहना चाहूंगी की जहां एकओर भरतीय परिधान में उसकी खूवसूरती एवं आकर्षण लटकनशैली आधारित होती है वहीं पश्चिमी परिधान प्रायः शरीराकारीक होते है। जो आज के विकसित और परिवर्तित जरूरतों के लिए ज्यादा अनुकूल होते है इसमें उठना -बैठना ,भागना -दौ डना ,सीढ़ियां या वाहन पर चढ़ना -उतरना आदि शारीरिक गतिविधियां सरलता से सम्पन्न हो जाती है।तथाइसकी देख -रेख ,रख -रखाव भी तुलनात्मक रूप से आसान होती है। साथ ही भारत की विविधता को हम विशेष अवसरों पर क्षेत्रीय पारम्परिक वस्त्रो के साथ आभूषणों को पारम्परिक तरिके से प्रयोग कर अपनी संस्कृति को भी खुबसूरती से संजोया जा सकता है। वस्त्र और परिधान धारण करने के मूल उदेश्य तब भी दो ही थे और आज भी शरीर को ढककर सुरक्षित रखना और उनमें आकर्षण पैदा करना।


टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें