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सूर्योदय

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    सुबह के 4  बजे हैं। चारों तरफ घनघोर अँधेरा सनसनाती तेज हवायें  4 से 5 डिग्री तापमान ऐसा लगता है की अपने शरीर के साथ -साथ पूरा का पूरा वातावरण वर्फ की चादरों में लिपटी हुई है। इन सब के बीच उम्मीद की किरण लिए कहीं दूर एक हल्की सी आभा वर्फ की चादरों को चीरती हुई हमारी ओर शैनेः -शैनेः बढ़ती चली आ रही है।  पक्षियों की चहचहाट किसी के आने की आहट  दे रही है। अब वस पौ फटने ही वाली है। कितना सुखद एहसास है। मन और आत्मा को तृप्त कर देने वाली। हल्की गुनगुनी संतरी रंगों से सजी गुलदस्ता ऐसे लग रहा है जैसे तपती धरती पर वर्षा की पहली बूंद ,पतझड़ के बाद कोमलता से भरी पहली कली और भूख -प्यास से तड़पती आत्मा को तृप्त करने वाली मनभावन ,मनमोहक कोई वस्तु हो। निष्प्राण सा जीवों में शक्ति और ऊर्जा का अपार भंडार भरने वाली सुवह सूर्योदय के साथ एक नई दिन की शुरुआत। जो यह बताने और जताने के लिए काफी है की अँधेरे के बाद उजाले का आना शाश्वत सच है। हम इसका भरपूर आनंद उठायें और हर सुवह एक दिन नहीं एक जीवन की तरह जीयें। क्योकि जितना सच अँधेरे के बाद उजाले का आना है ठीक उतना ही सच उजाले ...

चुनाव की डुगडुगी और घोषणाओं का पिटारा

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सुगिया, बुद्धिया ,अक्लू ,शकलू सब के सब हैरान परेशान और अचम्भित होकर गल्ली -मुहल्लों में अचानक लंबी सन्नाटा को चीरते हुए होने वाले कोलाहल का आनंद लेते हुए कुछ समझने -बुझने की कोशिश कर ही रहा था की सामने से आते हुए झुमन चाचा की लच्छेदार बातों ने स्पष्ट करते हुए बताना शुरू किया। सुनो -सुनो गांव -मुहल्ला वासियों चुनावी उत्स्व का माहौल आ गया है तैयार हो जाओ अपनी-अपनी माँगों की लिस्ट के साथ। पिछले 5 सालों के बाद बरसाती मेढकों की टर्टराहट कितनी मधुर संगीत लेकर आया है।  कुछ आशा और उम्मीदों के साथ बच्चे - बूढ़े नौजवानों ,महिलाएं सब के सब अपनी -अपनी सहूलियत के हिसाब से पिछले चुनाव में मागी गई मांगों का हिसाब -किताब करने में जुट गए चर्चाओं का दौर शुरू हुआ। बच्चे आँगन के नल का जल में स्नान करके खुश हो रहें  हैं तो बुजुर्ग बिजली की रौशनी में अपने को निहाल मान रहे हैं। महिलाऍं घर में शौचालय और उज्ज्वला योजना से मिले गैस चूल्हों पर भविष्य की खिचड़ी पका रही है। वही छात्र -छात्राएँ स्कुल से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई में मिले सुविधाओं को लेकर उत्साहित भी हो रहे है और हतोत्साह...

भारतीय कामकाजी महिलाओं का ड्रेस कोड

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  भारतीय महिलाओं का ख्याल मन में आते ही एक ऐसी छवि अंतर्मन के दृष्टिपटल पर उभर आता है ,चाहे वह कवि हो ,ड्रेस डिजाइनर हो ,सामाजिक कार्यकर्ता हो ,या फिर विदेश यात्रा पर भरतीय प्रतिनिधित्त्व की ही बात क्यों न हो।  जिस देश की राष्ट्रीय पोशाक साडी हो वहाँ के धारणकर्ती के वारे में भी तो उसी के वैविध्यपूर्ण रूपों का ही ख्याल आएगा। एक सुंदर सजीली मासूम सी साड़ियों में लिपटी हुई ,सिमटी सी जैसे बदली की रात में चाँद का लुक्का -छिपी हो, ये तो हुई नई नवेली दुल्हन का रूप। इससे आगे आते है तो माँ का रूप भी कुछ इस तरह का ही जो साड़ियों में लिपटी तो हो पर बड़ा सा आँचल जिसमे ममता का सागर उमड़ता -घुमड़ता और दृढ़ता व् साहस जो अपने बच्चों और मान मर्यादा की रक्षा के लिए सतत तैयार हो। इससे आगे दादी माँ का वह कुछ विचित्र सी अपनी  लडखड़ाती  हाथों  से संभालती आचंल ऐसा लगता है जैसे अपनी संस्कृति को बचाने की संघर्ष कर रही हो।  ये तब की बात थी जब हम घर के चारदीवारी के अंदर थे ,घर गृहस्थी और बच्चों की परवरिश ही हमारी पूरी जिम्मेदारी थी। जब आज की भौतिकवादी युग में हमारी जिम्म...