उम्मीद/अपेक्षा
देखने सुनने में एक जैसा लगने वाला शब्दों के बीच मे एक बारीक सा रेखा है I जिसकी गहराई में उतरते ही उम्मीद अपेक्षा से अलग स्वतंत्र अस्तित्व मे आ जाता है I उम्मीद जहाँ किसी के मौजूदगी का एहसास कराता है वहीँ अपेक्षा सम्पूर्ण व्यक्तित्व का ही प्रतिबिम्ब होता है I उम्मीद हम जाने-अनजाने किसी से लगा लेते हैं अपेक्षा सदैव अपनों से ही होती है I अपेक्षा की सीमाएं अनंत होती है अनवरत बढ़ती ही जाती है और अंततः आकाश के उल्का पिंड की तरह अपनों से बिछड़ कर टूटकर बिखर जाता है I ...