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पारम्परिक वस्त्रों का बदलता स्वरूप

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  भारत सदा से ही सामासिक संस्कृति को सरलता से आत्मसात करती रही है। हमारी संस्कृति कई साम्राज्यों के उत्थान और पतन का प्रत्यक्ष गवाह रहा है। यहाँ अनेक कलाओं जैसे :-चित्रकला, हस्तकला ,वास्तुकला ,संगीत ,और वस्त्र निर्माणकला सदैव से फलती -फूलती रही है। बल्कि यों कहें की अंतराष्ट्रीय बाजार में आकर्षण का केंद्र रहा है।  परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है उसमे कुछ खोने -पाने की अद्भूत तारतम्य होता है। ठीक वैसे ही जैसे वसंत में पत्तों का गिरना और उसपर कोपलों का निकलना सदा से ही निर्माण और निर्वाण का संयुक्त उदाहरण रहा है। अभी -अभी विवाह और शुभ मुहूर्त में शुभ कर्मो जैसे -मुंडन, गृह -प्रवेश ,पारम्परिक पर्व -त्योहारों नवरात्री ,छठ पर्व ,रामनवमी ,रमजान सब मिलाकर उतसवी माहौल बना रहा है। ऊपर से लॉकडाउन का खतरा भी मंडरा रहा है ऐसे में सुरक्षा ,संरक्षण के साथ ही परम्पराओं का निर्वाह एक चुनौतीपूर्ण कार्य हो जाता है।  ऐसे अवसरों पर पहने जाने वाले कुछ विशेष वस्त्रो जैसे -रेशमी कुर्ता -पायजामा या धोती,बनारसी ,सिल्क साडी ,कांजीवरम ,चंदेरी ,पटोला ,बांधनी सदा से लोकप्रिय रहा है। कुछ दशकों पूर्व तक...